‘दीदी’ ऐसे तेवर ना दिखाना, बीजेपी डाले वोटर को दाना

महान समाजवादी दार्शनिक कार्ल मार्क्स ने कहा था –“इतिहास स्वंय को दोहराता है।“ मार्क्स के नाम पर राजनीतिक करने वाली पार्टी का गढ़ रहे पश्चिम बंगाल में आजकल इतिहास कई मायनों में खुद को दोहरा रहा है। सत्ता के संरक्षण में राजनीतिक हिंसा हो रही है, सियासी विरोधियों पर जानलेवा हमले कराए जा रहे हैं और चुनाव से पहले हिंसा के सहारे विपक्ष को डराने की कोशिश की जा रही है।

याद कीजिए, दस साल पहले तक बंगाल की सत्ता पर काबिज वामपंथी दल यही सब कुछ करते थे और जो ममता बनर्जी खुद इसका शिकार बनीं, वहीं अब वो सबकुछ करने पर अमादा हैं जो उनके पहले सरकार चला रही पार्टियां करती थीं। जून 1977 से लेकर मई 2011 तक लगातार 34 साल तक पश्चिम बंगाल में वामपंथी दलों के गठबंधन की सरकार रही। उस दौर में सत्ताधारी दल और उसके सिंडिकेट खुलेआम हिंसा की राजनीति करते थे। विरोध-प्रदर्शन करने सड़क पर उतरने वालों पर सरेआम हमले होते थे। भय का ऐसा वातावरण तैयार कर दिया गया था कि कोई विरोध करने की हिम्मत तक नहीं कर पाता था। ऐसा सिर्फ लेफ्ट के शासन के दौरान नहीं हुआ। वामपंथियों से पहले बंगाल में कांग्रेस की सरकार रही। पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा का दौर 1971 में मुख्यमंत्री बनने वाले कांग्रेस के दिग्गज नेता सिद्धार्थ शंकर रॉय के दौर में शुरू हुआ था। हिंसा वाली सियासत का विरोध कर 1977 में वामपंथी सत्ता में आए और ज्योति बसु मुख्यमंत्री बने। सत्ता तो बदली लेकिन सत्ता का मिजाज नहीं बदला। पिछली कांग्रेस सरकार की राह पर चलते हुए लेफ्ट सरकार ने भी अपने शासनकाल में सरकारी संरक्षण में खूब हिंसा होने दी। वामपंथियों की इस हिंसा के ख़िलाफ़ ममता बनर्जी ने आवाज़ उठाई। लंबे और कड़े संघर्ष के बाद ममता सत्ता के सिंहासन तक पहुंची। कुछ साल तक राजनीतिक हिंसा की वारदातों पर लगाम भी लगी। लेकिन समय बीतने के साथ-साथ जैसे-जैसे ममता बंगाल की सियासत में मजबूत होने लगीं, हिंसा वाली राजनीति भी लौटने लगी।

दस साल से सत्ता पर काबिज ममता बनर्जी के सामने आगामी विधानसभा चुनाव एक बड़ी चुनौती लेकर आया है। बीजेपी ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। 2019 लोकसभा चुनाव में 18 सीटें जीतकर बीजेपी उत्साह से भरी हुई है। पार्टी के दिग्गज नेताओं ने बंगाल में डेरा डाल दिया है। 200 सीटें जीतने का दावा कर दिया गया है और कार्यकर्ताओं पर लगातार होते जानलेवा हमलों के बावजूद बीजेपी मैदान छोड़कर भागने के लिए तैयार नहीं दिख रही है। सियासी रूप से सरेंडर कर चुके वामपंथ और कांग्रेस से अलग लेबल पर लड़ाई रहे विरोधी दल बीजेपी की ये अदा ममता बनर्जी को परेशान कर रही है। बात सिर्फ इतनी ही नहीं है। बीजेपी ने साम-दाम-दंड-भेद सबकुछ अपनाते हुए ममता की पार्टी में सेंधमारी शुरू कर दी है। नतीजा ये निकला है कि तृणमूल कांग्रेस में पहली बार इतने बड़े पैमाने पर बग़ावत के सुर सुनाई पड़ रहे हैं। हताशा में ममता बनर्जी की पार्टी अब बीजेपी के बड़े नेताओं का भी हिंसक विरोध करने लगी है।

ममता बनर्जी के सियासी वारिस और भतीजे अभिषेक बनर्जी के चुनावी क्षेत्र डायमंड हार्बर में बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के काफिले पर जिस तरह से हमला हुआ, उसने बंगाल के रक्तरंजित सियासी अतीत का काला इतिहास एक बार फिर याद दिला दी है। नड्डा के काफिले पर हमले के बाद बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व और राज्य ईकाई ने जिस तरह पलटवार किया है, उससे ये साफ संकेत नज़र आ रहा है कि बीजेपी ईंट का जवाब पत्थर से देने के मूड में है। नड्डा के काफिले पर हुए हमला मामले में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने बंगाल के मुख्य सचिव और डीजीपी को तलब कर लिया है। राज्यपाल जगदीप धनखड़ ने भी गुरुवार की घटना पर प्रतिक्रिया देते हुए ममता को आग से ना खेलने की नसीहत दी। धनखड़ ने कहा कि मुख्यमंत्री अगर अपने दायित्वों का निर्वहन नहीं करेंगी तो राज्यपाल को अपनी जिम्मेदारी निभानी पड़ेगी। संकेत साफ है। हालात ऐसे ही बेकाबू होते रहे तो बंगाल में राष्ट्रपति शासन का आधार तैयार हो सकता है।
सवाल ये है कि देश की सबसे बड़ी पार्टी के अध्यक्ष के दौरे की जानकारी पहले से होने के बावजूद सुरक्षा में इतनी बड़ी चूक क्या राज्य सरकार के दिशा-निर्देश में हुई। ज़ाहिर है, सरकार या अफसरों का जवाब ना होगा। लेकिन बीजेपी इस आपदा को अवसर बनाने की कोशिश में जुट गई है। बीजेपी नेताओं ने बंगाल की तुलना सीरिया और नॉर्थ कोरिया से करनी शुरू कर दी है।
पार्टी नेताओं के बयानों से ये साफ है कि बीजेपी ‘याचना नहीं अब रण होगा’ के मूड में आ गई है। कुछ बयान तो ऐसे हैं जिनमें पार्टी बदले की आग में जलती हुई दिखाई पड़ रही है। बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष ने कहा – “बदलाव करेंगे और बदला भी लेंगे”। एक दूसरे नेता सायंतन बसु ने कहा – “तुम एक मारोगे तो हम चार मारेंगे”। बीजेपी का ये बयान अपने विरोधियों के लिए कम अपने कार्यकर्ताओं के लिए ज्यादा था। ऐसे बयानों से पार्टी अपने समर्थकों को ये संदेश देना चाहती है कि डरना नहीं, लड़ना है और लड़ कर ममता के शासन को उखाड़ फेंकना है।
जब से केंद्र में मोदी सरकार आई है, तब से अगर किसी नेता ने मोदी का सबसे ज्यादा विरोध किया है तो वो ममता बनर्जी ही हैं। हर मुद्दे पर ममता विपक्ष की आवाज़ बनकर सामने आई हैं। बीजेपी पर ममता बनर्जी का गुस्सा होना कोई नई बात नहीं है, नई बात है ममता की भाषा का मर्यादा की सारी सीमाएं तोड़ देना। जेपी नड्डा की पहचान एक शांत, संयमित और मर्यादित नेता की रही है। देश की सबसे बड़ी पार्टी के अध्यक्ष के लिए एक मुख्यमंत्री की जुबान से जो शब्द निकले, उससे ममता की बेचैनी का अंदाजा लगाया जा सकता है। बंगाल की मुख्यमंत्री ने गुरुवार को कहा – “कभी यहां गृह मंत्री होते हैं, तो कभी चड्ढा, नड्डा, फड्डा और भड्ढा। जब उन्हें ऑडियंस नहीं मिलती, तो वे अपने कार्यकर्ताओं से ऐसी नौटंकियां करवाते हैं।“
ममता के इस अमर्यादित बयान पर कोई दूसरा नेता होता तो शायद वो भी मर्यादा की दीवारें तोड़ देता, लेकिन नड्डा ने अपने पलटवार में संयम का परिचय दिया। जेपी नड्डा ने कहा – “उन्होंने मेरे बारे में बहुत सारी संज्ञाएं दी हैं। यह उनके संस्कारों के बारे में बताता है। यह बंगाल का कल्चर नहीं है।“
अपना सिंहासन हिलता देख कर ममता कितनी बेचैन हैं, ये साफ-साफ दिख रहा है। बीजेपी उनकी इसी बेचैनी को हथियार बनाकर बंगाल के मतदाताओं का दिल जीतने की कोशिश कर रही है। अभी तो बीजेपी के योद्धा मैदान में उतरे हैं। सेनापति मोदी का रणक्षेत्र में आना बाकी हैं। मोदी जब चुनाव प्रचार में बंगाल की सरजमीं पर उतरेंगे तब ममता से उनकी दिलचस्प टक्कर होगी। जंग जबर्दस्त है। टीम मोदी ने ममता के लीडर से लेकर वोटर तक पर डोरे डालने शुरू कर दिए हैं। अब दीदी को अपना वोट बैंक बचाना है। 1757 में बंगाल के प्लासी में नवाब सिराजुद्दौला और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच हुआ ऐतिहासिक युद्ध इतिहास के पन्नों में दर्ज है। 2021 में होने वाला बंगाल का चुनावी संग्राम भी हिंदुस्तान की राजनीति में मिल का पत्थर साबित होने वाला है।