बीजेपी की तरफ दौड़े बाग़ी, लेकिन बंगाल में अभी पिक्चर है बाकी

19 दिसंबर 2020…. ये तारीख दो वजहों से इतिहास के पन्नों में दर्ज होने वाली है। एक वजह खेल प्रेमी नहीं भूल पाएंगे और दूसरी वजह को देश की राजनीति भूलने नहीं देगी। इस ऐतिहासिक दिन टीम इंडिया ने टेस्ट क्रिकेट का अपना अब तक का न्यूनतम स्कोर बनाया और इसी दिन ममता बनर्जी के राज में वो सियासी बवंडर उठा, जिसने बंगाल में बीजेपी की बुलंद राजनीतिक इमारत की नींव रख दी। एक दिन, एक मंच पर, एक साथ 10 विधायक, एक सांसद, 15 पार्षद, 2 जिला पंचायत अध्यक्ष सहित दर्जनों नेताओं ने गले में केसरिया गमछा डालकर बीजेपी का दामन थाम लिया। ये एक दिन में ममता बनर्जी की पार्टी को लगा अब तक का सबसे बड़ा झटका था।

शनिवार को बंगाल के राजनीतिक क्षितिज पर जो दिखा, वो सिक्के का एक पहलू था। कवर पेज देखकर किसी किताब की गहराई का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। सही और सटीक आंकलन के लिए पुस्तक का हर पन्ना पढ़ना जरूरी होता है। बंगाल की सियासत का भी कुछ ऐसा ही हाल है। बीजेपी ने दूसरे दलों के लिए अपने दरवाजे खोल दिए हैं, इन दरवाजों से विरोधी दलों के नेताओं की एंट्री भी शुरू हो गई है, लेकिन ये महज इंटरवल है, पिक्चर अभी बाकी है। बंगाल की सत्ता का केंद्र कोलकाता की रॉयटर्स बिल्डिंग जाने वाला रास्ता ममता बनर्जी के लिए अब भी पूरी तरह बंद नहीं हुआ है। ऐसा क्यों है ये समझने के लिए कुछ आंकड़ों पर नज़र डालना जरूरी है।
- पश्चिम बंगाल में 30 फीसदी मुसलमान वोटर हैं
- कुल 120 सीटों पर मुसलमान मतदाताओं का रोल अहम रोल में रहता है
- 90 सीटों पर जीत और हार मुस्लिम वोटर तय करता है
- एकमुश्त मुस्लिम वोट किसी भी दल के हिस्से में 100 सीटें डाल सकता है
पिछले कई दशक का रिकॉर्ड ये साबित करता है कि मुस्लिम वोट जिसे सबसे ज्यादा मिला, पश्चिम बंगाल की सत्ता की बागडोर उसी के हाथ में रही। 2006 के विधानसभा चुनाव तक मुसलमान वामपंथी दलों के साथ थे और 34 साल तक पश्चिम बंगाल में सत्ता की कमान लाल झंडे वालों के हाथों में रही। 2011 से मुस्लिम वोट ममता बनर्जी को मिलने लगा और वो गद्दी पर बैठने में कामयाब रहीं। बंगाल में बीजेपी की सरकार तभी बन सकती है, जब मुसलमान वोट बैंक में बंटवारा हो जाए। बीजेपी को पता है कि उसका सपना ओवैसी पूरा कर सकते हैं। AIMIM जितनी मजबूत होगी, बीजेपी जीत के उतने ही करीब होगी।
ओवैसी ने बिहार के सीमांचल में जो प्रदर्शन किया, वैसा अगर बंगाल में दिखा पाए तो ममता का गद्दी से उतरना तय है।

बंगाल में बीजेपी असम वाले फॉर्मूले से सरकार बनाने का सपना देख रही है। 126 सीटों वाली असम विधानसभा में 53 सीटें मुस्लिम बहुल हैं। 2016 के चुनाव में इनमें से 27 सीटों पर बीजेपी को जीत मिल गई क्योंकि मुस्लिम वोट का कांग्रेस और मौलाना बदरुद्दीन अजमल की पार्टी AIUDF में बंटवारा हो गया। नतीजा पहली बार असम जैसे राज्य में भगवा झंडा वालों की सरकार बन गई। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या ओवैसी बंगाल में उतने असरदार साबित होंगे जितने असम में अजमल हुए थे। बंगाल के 5 जिले मुसलमान बहुल हैं। मालदा, मुर्शिदाबाद, दक्षिण दिनाजपुर, उत्तर दिनाजपुर, दक्षिण 24 परगना जिलों में साठ से भी ज्यादा सीटें हैं। इन इलाकों में AIMIM की जड़ें जितनी मजबूत होंगी, ममता बनर्जी उतनी ही कमजोर पड़ेंगी। लेकिन ओवैसी के लिए ममता के अल्पसंख्यक वोट बैंक में सेंध लगाना आसान नहीं होगा। इसके पीछे कई वजहें हैं। अपने 10 साल के शासनकाल में ममता ने मुसलमानों के लिए कई योजनाएं शुरू की।
- मदरसों को सरकारी सहायता
- मुस्लिम छात्रों के लिए स्कॉलरशिप
- मौलवियों को आर्थिक मदद
ये कुछ ऐसी योजनाएं हैं जो मुसलमानों को ममता बनर्जी के करीब ले जाती हैं। ममता के लिए राहत की बात ये भी है कि ओवैसी का संगठन बंगाल में अभी मजबूत नहीं हुआ है। कई जिलों में तो उनका संगठन भी नहीं है। पिछले महीने AIMIM की पश्चिम बंगाल ईकाई के एक बड़े नेता अनवर पाशा कई कार्यकर्ताओं के साथ तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं। लेकिन बीजेपी को ओवैसी की एंट्री का फायदा मिलने की पूरी उम्मीद है और इसी उम्मीद में टीएमसी, लेफ्ट और कांग्रेस के नेता भी बीजेपी में शामिल हो रहे हैं। बीजेपी सिर्फ ओवैसी के भरोसे नहीं है। वो बंगाल चुनाव में मुसलमान वोट हासिल करने की भी रणनीति पर काम कर रही है। सूत्रों के मुताबिक बंगाल में बीजेपी कुछ मुस्लिम बहुल सीटों पर मुसलमान कैंडिडेट को भी टिकट देने वाली है। यानी बीजेपी का दावा मजबूत तो है। सियासत का समीकरण किसे सत्ता के द्वार तक पहुंचाता है इसका इंतज़ार पूरे देश को है।