बिहार में चुनाव बा

बिहार में चुनाव बा

बिहार में चुनाव बा यानी बिहार में चुनाव है। चुनाव बिहार में है लेकिन चर्चा पूरे देश में है। 2020 का ये विधानसभा चुनाव कई मायनों में दिलचस्प है। पिछले 30 सालों में बिहार में जब भी चुनाव हुए, चाहे वो विधानसभा के हों या लोकसभा के, सियासी दंगल के केंद्र में लालू प्रसाद यादव रहे। लेकिन पिछले तीन दशक में ये पहली बार है, जब चुनाव लालू के नेतृत्व के बिना लड़ा जा रहा है। उनकी पार्टी चुनाव तो लड़ेगी, लेकिन प्रचार में लालू नज़र नहीं आएंगे। झारखंड में बैठ कर लालू यादव महाभारत के संजय की तरह बिहार के राजनीतिक कुरुक्षेत्र में अपने सेनापतियों को जंग लड़ते तो देखेंगे, लेकिन चुनावी रैलियों में अपनी जुबानी तलवार से विरोधियों पर हमले नहीं कर पाएंगे। 2015 का विधानसभा चुनाव याद कीजिये। वो लालू ही थे जिन्होंने नीतीश के साथ मिलकर मोदी लहर की हवा निकाल दी थी। लेकिन इस बार कहानी बिल्कुल अलग है। नीतीश अब मोदी के साथ हैं और सामने मुकाबले में लालू जैसा महारथी भी नहीं है। एनडीए के सामने एक गठबंधन तो है, लेकिन उसमें एक भी नेता ऐसा नहीं है जिसे कद्दावर कहा जा सके। तेजस्वी अभी राजनीति में ज्यादा परिपक्व नहीं हैं। मुद्दों को पकड़ना और जनता की दुखती रग पर हाथ रखना जैसे सियासी कौशल का प्रदर्शन वो अब तक नहीं कर पाए हैं। तेजस्वी की सियासी लड़ाई सड़क के बजाय सोशल मीडिया पर ज्यादा नज़र आती है। परिवार में कलह ने भी उनको कमजोर किया है। ब्रांड लालू की बजाय ब्रांड तेजस्वी से मुकाबला एनडीए के लिए आसान होगा। ‌लालू यादव की गैर मौजूदगी में पार्टी को रघुवंश प्रसाद सिंह के अनुभव से फायदा पहुंच सकता था। लेकिन दुर्भाग्य से उनका निधन हो गया और अपने अंतिम दिनों में उन्होंने पार्टी से इस्तीफा भी दे दिया था। आरजेडी की समस्या यहीं खत्म नहीं होती। चुनाव से ठीक पहले गठबंधन के तीन सहयोगी साथ छोड़ कर चले गए। उपेंद्र कुशवाहा की आरएलएसपी महागठबंधन से बाहर हो गई तो जीतन राम मांझी एनडीए के पाले में जा बैठे। मांझी को अपने खेमे में लाकर बीजेपी-जेडीयू ने एक तीर से 2 शिकार किए। महागठबंधन तो तोड़ा ही सीटों की संख्या को लेकर दबाव बना रही रामविलास पासवान की पार्टी को भी संदेश दे दिया कि गठबंधन में दलित चेहरे की कमी नहीं है। जीतन राम मांझी की तरह वीआईपी पार्टी के मुखिया मुकेश सहनी ने भी महागठबंधन से नाता तोड़ लिया है। प्रेस कॉन्फ्रेंस में तेजस्वी यादव महागठबंधन के सीट शेयरिंग का ऐलान कर रहे थे, लेकिन मुकेश सहनी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान ही बग़ावत का ऐलान कर महागठबंधन की किरकिरी करा दी। अब आरजेडी, कांग्रेस और वामपंथी दलों का गठबंधन एनडीए से मुकाबले के लिए कमर कस रहा है। कांग्रेस और लेफ्ट की ताकत बिहार में कितनी है ये बात किसी से छुपी हुई नहीं है। चुनाव की चिंता शायद कांग्रेस ने भगवान भरोसे छोड़ दी है। पार्टी के सीनियर नेताओं की चिट्ठी ने पार्टी के अंदर भूचाल ला दिया है और समाधान के सार्थक प्रयास होते अब तक नज़र नहीं आए हैं। गठबंधन में दरार एनडीए खेमे में भी देखी गयी है। नीतीश के खिलाफ विरोध का झंडा उठाकर एलजेपी ने अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है। पार्टी एनडीए से अलग उम्मीदवार तो उतारेगी, लेकिन वोट मोदी के नाम पर मांगेगी। ये एक हैरान करने वाला फैसला है। ऐसे में उम्मीद की जा रही है कि चुनाव बाद जरूरत पड़ने पर एनडीए को एलजेपी का भी समर्थन हासिल हो सकता है। जहां तक नीतीश के कामकाज का सवाल है तो
15 साल के नीतीश के शासनकाल में उपलब्धियों की कमी नहीं है, लेकिन ज्यादातर काम शुरुआती 2 कार्यकाल के रहे हैं। तीसरा कार्यकाल सवालों के घेरे में रहा है। इस साल बाढ़ की बदहाली और कोरोना की वजह से आई बेरोजगारी ने नीतीश और मोदी की साख में बट्टा लगाने का काम किया है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या तेजस्वी एंड कंपनी में इतनी क्षमता है कि वो इस हालात का सियासी फायदा उठा सके और मोदी-नीतीश की जोड़ी को धूल चटा सके। जवाब अभी भविष्य के गर्भ में है, लेकिन शुरुआती रुझान में हौसला एनडीए का बुलन्द दिख रहा है। महागठबंधन का समीकरण बिगाड़ने औवैसी की पार्टी भी मैदान में उतर रही है। एमआईएम ने देवेंद्र प्रसाद यादव की पार्टी समाजवादी जनता दल के साथ गठबंधन किया है। किशनगंज और कटिहार जैसे सीमांचल के इलाकों में ओवैसी का प्रभाव है और चुनाव में ओवैसी की एंट्री से महागठबंधन के मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगनी तय मानी जा रही है। इस बार के चुनाव में पप्पू यादव भी एक बड़ा फैक्टर साबित हो सकते हैं। नब्बे के दशक में यादवों के नेता रहे पप्पू यादव की अब हर जाति में पैठ बनती दिख रही है। बाढ़ और कोरोना के संकट काल में जब सभी छोटे-बड़े नेता घरों में कैद थे, पप्पू सड़क पर और जनता के बीच दिखते थे। पिछले साल पटना सैलाब में डूबा था तो कमर भर पानी मे डूबकर पप्पू यादव राहत के पैकेट लेकर गली-गली घूमते दिखे। पप्पू यादव की वो तस्वीर बिहार भूला नहीं है। पप्पू की पार्टी अगर किसी बड़े गठबंधन का हिस्सा बनती तो बड़ा असर डाल सकती थी। लेकिन कुछ छोटे और गैर-असरदार दलों के साथ गठबंधन करने वाले पप्पू यादव कोई बड़ा कमाल कर पाएंगे इसकी उम्मीद करना बेमानी है। बिहार के चुनाव में अबकी बार एक नया चेहरा भी है। विदेश से आई पुष्पम प्रिया ने प्लूरल्स पार्टी तो बना ली है, लेकिन उनके पास न तो संगठन की शक्ति है न ही कोई राजनीतिक अनुभव। नए चेहरों में एक नाम आशुतोष का भी है। भूमिहार-ब्राह्मण एकता मंच संगठन चलाने वाले आशुतोष ने राष्ट्रीय जन जन पार्टी नाम से एक नए दल का गठन किया है। इस पार्टी का गठन तो नौजवानों के नाम पर किया गया है, लेकिन राजनीतिक पंडित फिलहाल इसे एक जाति की पार्टी मान रहे हैं और इस चुनाव में ये पार्टी कोई छाप छोड़ पाएगी इस पर संदेह ही संदेह है। कुल मिलाकर मजबूत विपक्ष की कमी है और एनडीए इसका फायदा उठाने के लिए तैयार खड़ा है। बिहार चुनाव के नतीजे जितने नीतीश के लिए अहम हैं उतने ही मोदी के लिए भी हैं। बिहार में जीत से नरेंद्र मोदी को भी राहत मिलेगी। बेरोजगारी, महंगाई, बेकाबू कोरोना जैसे मुद्दों पर केंद्र सरकार सवालों के घेरे में है। बिहार में जीत मिल गई तो बीजेपी ये कह सकती है कि मोदी के नाम और मोदी के काम पर जनता का भरोसा अब भी कायम है। लेकिन अगर एनडीए की हार हो गई तो नेशनल लेबल पर बीजेपी विरोधी दलों को मोदी से लड़ने का मुद्दा मिल जाएगा। कुल मिलाकर लड़ाई दिलचस्प है। एनडीए वॉकओवर मिलने की उम्मीद लगाए बैठा है और महागठबंधन को चौंकाने वाला जनादेश की उम्मीद है। जीत का ऊंट किस करवट बैठेगा ये तो नहीं पता, लेकिन इतना जरूर पता है कि जो भी नतीजा होगा वो बेहद दिलचस्प होगा और उसका असर केंद्र की राजनीति पर भी पड़ सकता है।

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